भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूर –कहीं दूर / शशि पाधा

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:48, 21 नवम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पाधा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँधेरे में टटोलती हूँ
बाट जोहती आँखें
मुट्ठी में दबाए
शगुन के रुपये
सिर पर धरे हाथों का
कोमल अहसास
सुबह के भजन
संध्या की
आरतियाँ
लोकगीतों की
मीठी धुन
छत पर रखी
सुराही
दरी और चादर का
बिछौना
इमली, अम्बियाँ
चूर्ण की गोलियाँ
खो-खो, कीकली
रिबन परांदे
गुड़ियाँ –पटोले
फिर से टटोलती हूँ
निर्मल स्फटिक- सा
अपनापन
कुछ हाथ नहीं आता
वक्त निगल गया
या उनके साथ सब चला गया
जो चले गए
दूर--- कहीं दूर
किसी अनजान
देश में
और फिर
कभी न लौटे।