भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेटी / दिनेश शर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:39, 11 दिसम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश शर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहारें छा ही जाती हैं जहाँ ख़ुशहाल हो बेटी
करें ऊँचा बहुत मानो पिता के भाल को बेटी
ख़ुशी थी धाम में कैसी पिता ने राज़ तब जाना
कि जब घर से विदा होकर चली ससुराल को बेटी

कहें दादा सदा रखती कुलों की लाज को बेटी
वो माँ की मान बातों को पिता की ढाल हो बेटी
सताती हैं बहुत दिन तक पिता को याद बेटी की
कि जब घर से विदा होकर चली ससुराल को बेटी

सभी का ध्यान रखती है महीनो साल जो बेटी
सदा करती है घर की ठीक से पड़ताल वह बेटी
दुलारा था बहुत जिसको पराया आज कर डाला
कि जब घर से विदा होकर चली ससुराल को बेटी