Last modified on 24 दिसम्बर 2024, at 21:41

सागर होकर पछताये / गरिमा सक्सेना

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:41, 24 दिसम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गरिमा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह=क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अच्छे भले नदी थे लेकिन
सागर होकर पछताये हम

हमने खाली अंजुलियों को
मोती, सीपी, शंख दिये हैं
अपनी सीमाओं में रहकर
सबकी ख़ातिर रोज़ जिये हैं
सबने हममें लाकर घोला
है नित अपने अवसादों को
चंचल नदियों ने सौंपा है
आकर अपने उन्मादों को

सबका खारापन पी-पीकर
निष्ठुर खारे कहलाये हम

साहिल ने भी रोज़ हमारी
लहरों की अर्जी लौटायी
राजा जैसा कोष भरा पर
हमने नियति रंक की पाई
क्या पूनम, क्या पड़े अमावस
ज्वार हृदय में उठता रहता
प्यासों को प्यासा रखने का
दोष सदा ही हम पर लगता

मजबूरी समझा कब कोई
और नहीं समझा पाये हम