कालाय तस्मै नमः / खण्ड-6 / भारतेन्दु मिश्र
251.
पथ पर बिखराता रहा, महुआ मीठे फूल
पर पठार बोता रहा, चिनगारी के शूल।
252.
रचनाओं के नाम पर, ले चुटकुले-प्रपंच
अब तुक्कड़ कवि लूटता है, तिकड़म से मंच।
253.
भूखा नीरस दीन कवि, संकट है घनघोर
गीतांजलि ले घूमता, अब दर-दर टैगोर।
254.
पंचशील रटते रहे, जब हम देश-विदेश
धावा बोल चीन ने, अकुलाया शैलेश।
255.
मन के बंदरगाह पर, टकराये दो पोत
फिर सागर की सतह पर, जली नेह की जोत।
256.
राधा-उद्धव-कृष्णमय, अखिल विश्व की सृष्टि
हतप्रभ करती है मुझे, सूर तुम्हारी दृष्टि।
257.
विंध्याचल पर घूमता, बाण बना चंडाल
हर्ष न मिलता मान से, विषम समय की चाल।
258.
संधि-सूत्र निष्फल हुए, पाणिनि रोया खूब
फिर इस काली झील में, गयी एकता डूब।
259.
चंद्रगुप्त मोहित हुआ, विषकन्या को देख
विष्णुगुप्त अब लिख रहा, कामसूत्र पर लेख।
260.
कपिलवस्तु में चल रहा, रक्तपात-व्यभिचार
अब गौतम की भूमि है, हिंसा का बाज़ार ।
261.
नाव बिकी, पानी बिका, बिके कमाऊ घाट
धारा सिकुड़ी नदी की, खड़ी हो गयी खाट।
262.
सहमी-सिसकी-रो पड़ी, जो विधवा-सी रात
अब न कभी जन पायगी, वह अरुणाभ प्रभात।
263.
भ्रमर उड़ा क्यों, है बहुत, चंपा को अफसोस
किरन सखी ही पोछती, अब आँसू की ओस।
264.
फिर ताँगा टूटा, गिरा, हुआ अश्व बेजान
बस-दुर्घटना में बची कोचवान की जान।
265.
थकता-रुकता-टूटता, फिर चलता बेहाल
लगी उतरने अब हिरन के, तलुओं की खाल।
266.
आयी मन भटका गयी, बिंधे नयन के तीर
लछमिनिया के रूठते, फूट गयी तकदीर।
267.
मल-मल निर्मल कर रहा, अमलतास की देह
नेताओं की आँख से, लगा देखने मेह।
268.
दूध पिया, मुँह पोंछकर, भाग गई चुपचाप
वो बिल्ली-सी कूदती, करती एकालाप।
269.
कई वर्ष पहले चुभी, थी इस दिन ही कील
तब से ज़ख़्मी पाँव है, हाथों में कंदील।
270.
अब तक तो सब ठीक है, आगे हो सो जान
इस अंतिम सप्ताह में, आएँगे मेहमान।
271.
जो बाला विधवा बनी, थी पिछले ही मास
आँख मारती वह मिली, अब दर्पन के पास।
272.
मेरी तेरी प्रेरणा का, पथ बिल्कुल भिन्न
जो है विष तेरे लिए, वह है मेरा अन्न।
273.
साहचर्य का भ्रम लिये, चलता रहा असंग
गीत रक्त रंजित हुए, पंथ चुना बेढंग।
274.
पूरी दुनिया का कलुष, जो कर देती साफ
वह झाडू मैं बन नहीं पायी, करना माफ।
275.
पटरी-पटरी रेंगकर, आ पहुँचा इस द्वार
ऐ फ़क़ीर तू संत है, कर अपना उद्धार।
276.
यह ज़हरीली बावड़ी, इसमें पलते नाग
खेला करते थे यहाँ, हिलमिल पुरखे फाग।
277.
जिसके पुरखे भी कभी, गये न वट के पास
वह उलूक लिखने लगा, बरगद का इतिहास।
278.
उलटे पैर चले चलो, यहाँ हवा बदमस्त
गाँव अग्रसर नाश को, पशु-पक्षी सब त्रस्त।
279.
इड़ा-पिंगला फड़कतों, किंतु सुषुम्ना शांत
मैं औचक-भौंचक गिरा, तब होकर दिग्भ्रांत।
280.
अभी नये हो, इस लिए, करते हो संकोच
कल पीपल, बरगद सभी, से लोगे उत्कोच।
281.
सत्य लिखा, काटा गया, प्रतिवादी बेचैन
हर झूठी तारीख पर, सजग न होते नैन।
281.
सत्य लिखा, काटा गया, प्रतिवादी बेचैन
हर झूठी तारीख पर, सजग न होते नैन।
282.
भस्मासुर को जो दिया, था तुमने वरदान
उसका ही परिणाम है, जलता हिंदुस्तान।
283.
फिर सपनों में मिल नहीं, पायी चंदन देह
वर्षों पहले किया था, मैंने जिसे सनेह।
284.
गिरे हुए, गिरते हुए, पत्ते रही ढकेल
री! पागल पछुआ मुई! पीपल से मत खेल।
285.
मेघ गीत गाने लगा, लगा झूमने मोर
ीाौरे देते ताल, पर हवा न करती शोर।
286.
पीतांबर ओढ़े हुए, हरषे खिले कनेर
आम रह गये देखते, मधु-ऋतु की अंधेर।
287.
बार-बार वह तोड़ता, करता जो अनुबंध
फिर मेरे ही नाम की, खा लेता सौगंध।
288.
अब तक जो तुमने कहा, वह सब सुंदर श्लिष्ट
मेरी सीधी बात भी, लगती तुमको क्लिष्ट।
289.
लगी डूबने ताल में, जब शासन की नाव
तब संसद का सड़क ने, विधिवत किया घेराव।
290.
थोथेपन के साथ ही, उनकी एक दलील
मर्यादा के पाँव में, चुभे वक़्त की कील।
291.
पंथ नहीं लेकिन पथिक, कर न सका विश्राम
डगर-डगर में बिछ गये, छोटे बड़े विराम।
292.
पलक-पुलिन को पार, कर बही पीर की बाढ़
तब नभ में घनश्याम बन, आ पहुँचा आषाढ़।
293.
पावस नहलाने लगी, महुआ और पठार
बहुत समय से पड़े हैं, जो दोनों बीमार।
294.
झीलों की आँखें खुलीं, खिले कमल के फूल
हँसी नीम, बूँदें गिरीं, हरषा बहुत बबूल।
295.
कमर बेतवा की हुई, जब पतली इस बार
तब पावस ने करधनी-सी दी उसे फुहार।
296.
दादुर चढ़कर छा गया, था यह ऊँचा मंच
जोड़-तोड़ कर कूदता, रचता नया प्रपंच।
297.
चीं-चीं करती फुदकती, गाती गीत हजार
उड़ा ले गयी आँधियाँ, अब उसका संसार।
298.
मंदिर के ध्वज तक चढ़ी, नन्ही चींटी एक
क्रोधित द्विज ने खो दिया, अपना बुद्धि विवेक।
299.
चीटीं अक्षत ले चढ़ी, जब पीपल के शीश
ब्रह्मराक्षस से बना, वह पीपल जगदीश।
300.
तकलीफों का व्यर्थ में, कर न यहाँ तू जिक्र
सब बेगाने हैं यहाँ, सबको अपनी फिक्र।