भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कालाय तस्मै नमः / खण्ड-7 / भारतेन्दु मिश्र

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:56, 7 जनवरी 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतेन्दु मिश्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

301.
अब चिड़िया के सामने, मौत खड़ी प्रत्यक्ष
बाज बन गया व्योम का, एकछत्र अध्यक्ष।

302.
धीरे-धीरे हो गया, यह उपवन अपवित्र
घूम रही हैं तितलियाँ, लेप विदेशी इत्र।

303.
तोड़ मित्रता, छोड़ सुख, जोड़ा उसने बैर
क्योंकि स्वार्थवश मित्र ही, बना अचानक गैर।

304.
नभ में मँडराती रही, आशाओं की चील
भरी मछलियाँ, सूखती गयी नेह की झील।

305.
उमड़-घुमड़ घिरते रहे, गिरी न रस की बूँद
वृक्ष-सरित-सर अब सभी ने, ली आँखें मूँद।

306.
कुमुद खिले जल में जहाँ, निश्ािि भर रहा मयंक
वह सर सूखा गर्त है, बचा खुचा कुछ पंक।

307.
तार-तार जिसने बुना, बुने हजारों वस्त्र
तार-तार धोती हुई, अब वह है निर्वस्त्र।

308.
कर अनहद की साधना, भूल सभी अपराध
पूरे कर कर्तव्य सब, मन की वंशी साध।

309.
अब गन्ने के खेत में, रक्खी है बंदूक
पेड़ बटे, धरती बँटी, गाँव हुआ दो टूक।

310.
देह बहुत नीली हुई, असली फूली खूब
नभ से एकाकार हो, गयी नीलिमा डूब।

311.
पिघल-पिघल बहने लगा, मन दर्पण का काँच
अब न सही जाती सखे, इतनी तीखी आँच।

312.
सुइयाँ ठिठकीं तो हुई, घड़ी अचानक बंद
किंतु समय पढ़ता रहा, हर रहस्य का छंद।

313.
डोर सदा उलझी रही, उड़-उड़ फँसी पतंग
खिंचा-खिंचा रहने लगा, मन साँसों के संग।

314.
स्वाति मेघ बरसा नहीं, मौसम हुआ अधीर
चातक भी पीने लगा, नद-नालों का नीर।

315.
सावन के झूले नहीं, कजरी-मेघ-मल्हार
रेत-रेत झरती रही, चिनगी बनी फुहार।

316.
चीटे से हाथी बना, मुँह में लगी हराम
लोहे की जंजीर से, बँध अब सुबहो-शाम।

317.
उस चश्मे में जल नहीं, किधर जा रहे आप
प्यास बढ़ेगी - थकेंगे, होगा पश्चात्ताप।

318.
सुबह गया लौटा नहीं, देर रात तक पूत
काल-पाश माँ ने बुना, ले आशंका-सूत।

319.
एक बार घर से निकल, फिर न ज़माना पैर
तुलसी यायावर बना, चल करता रह सैर।

320.
नीड़, त्याग, चिड़िया उड़ी, कटी वृक्ष की नाक
धूल-धूसरित हो गयी, पीपल की भी धाक।

321.
अंधे दंपति को मिला, ऐसा श्रवण कुमार
रोते गाते ढो रहे, अब ममता का भार।

322.
जिस बरगद की डाल से, फूटीं जड़ें अनेक
बोधिवृक्ष वह काटना, था तो नहीं विवेक।

323.
पल-छिन प्रतिदिन युद्ध है, भूल गया घर देश
रोटी की आसक्ति है, गीता का उपदेश।

324.
भीड़-भागती सड़क का, लगता चित्र विचित्र
कल तक निर्जन हो रहेगी, यह दिल्ली मित्र।

325.
रोटी-कपड़ा-घर कहीं, कहीं मान-सम्मान
सबके अपने लक्ष्य हैं, हैं सब बेईमान।

326.
मन की चादर पर लगे, धब्बे आज अनेक
चिड़िया-सा घायल पड़ा, सहमा हुआ विवेक।

327.
शांति ओढ़ ली, चल रहा, अब मन में संग्राम
कन्या-सी चिंता बढ़ी, जीना हुआ हराम।

328.
पिता जला, माता जली, जले बंधु इस बार
कुल दीपक ने आज फिर, जला दिया घर-बार।

329.
मेरे पथ पर हैं खड़े, व्यवधानों के शैल
अपनानी ही पड़ेगी, समझौतों की गैल।

330.
रोटी-पानी-हवा तक, होती नहीं नसीब
सोलह दर्जे पढ़ चुका, पर न पढी तरकीब।

331.
लेन-देन की बात कर, दुनिया है व्यापार
तन-मन आत्मा बेच दे, देगा कौन उधार?

332.
पंगु कर गयी पीढ़ियाँ, अमरीका की गंध
इस ज़हरीली गैस का, था कैसा अनुबंध?

333.
लिखे हाशियों पर सदा, तुमने जो आदेश
वे सब बनते जा रहे, मेरा भाग्य विशेष।

334.
आसानी से तो कभी, मिटते नहीं सबूत
लेकिन अब बिकने लगे, सच्चाई के दूत।

335.
रक्त पी रहा युगों से, लालकिला है लाल
स्वतंत्रता की ओढ़नी, ओढ़े देश विशाल।

336.
तारकोल पिघला, हुई, घायल पथ की देह
खद्दरधारी मेघ तुम, कब बरसोगे नेह?

337.
जजबाती झगड़े हुए, गाँव हो गया राख
धीरे-धीरे घट रही, वट-पीपल की साख।

338.
फूलों की घाटी जली, फैला जब आतंक
एक-एक कर जल रहे, क्या राजा क्या रंक।

339.
उस प्रकरण में प्रेम था, इस प्रकरण में शोक
जिस प्रकरण में नाश हो, उस प्रकरण को रोक।

340.
जिन्हें न मिलता था कभी, घर में सहज प्रवेश
स्वामी बन अब दे रहे, वे सबको उपदेश।

341.
दंगे दिल्ली में हुए, काश्मीर में जोश
फिर बिहार जलने लगा, चंडीगढ़ ख़ामोश।

342.
बरगद का कठफोड़वा, औ’ पीपल का कीर
दोनों मिलकर लिख रहे, चिड़ियों की तकदीर।

343.
सगुन बताने के लिए, बैठा छत पर काग
नाम अतिथि का पूछती, आशंका की आग।

344.
सफल हुआ जब तो मिली, तूफानों की मार
आम, आदमी की तरह, हुआ पुनः बीमार।

345.
जुते खेत से उठ रही, फिर माटी की गंध
मन कहता कर लें चलो, धरती से अनुबंध।

346.
अपनी नज़र उतार कर, चौराहे पर फेक
चाहे जिसका हो बुरा, तू अपना हित देख।

347.
जब उनकी कुर्सी हिली, चिंतित हुए सुरेश
पर अब जब धरती हिली, उनको छुआ न क्लेश।

348.
कृपा देव की हो रही, इसी गाँव पर खास
तीखी गति में चल रहे, आज मरुत उनचास।

349.
जाने क्यों घटने लगा, सविता का अस्तित्व
शाप कर्ण का जी रहा, वह दैवी व्यक्तित्व।

350.
फिरता बनकर देवता, करता पुलकित रोम
पर न अमृत घट बाँटता, वह पूनम का सोम।