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कालाय तस्मै नमः / खण्ड-8 / भारतेन्दु मिश्र

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351.
जलाभाव में जो नहीं, कर पाया कल स्नान
वरुण देव ने खींच ली, उस प्यासे की जान।

352.
जल के कण-कण में बसे, जिस धरती के प्राण
उस धरती के पत्र पर, मेघ न देता ध्यान।

353.
तपे, उड़े उजड़े बने, फिर बालू के शैल
धुंध-धुआँ ही अब रहा, आसमान पर फैल।

354.
अब पलकों को बेधती, तीखे शर-सी धूप
प्यासी मछली-सा हुआ, परबतिया का रूप।

355.
कुलांगना-सी अब नहीं उषा बाँटती मोद
लुक छिपकर भरने लगी, अंधकार को गोद।

356.
यह पशुता की व्याकरण यह मनुष्य की देह
दड़बों में कैसे पले, मानवता से स्नेह।

357.
ब्रह्मचर्य की दीक्षा सदाचार के गीत
निष्फल सबके सब हुए, मन कंचन-मृग मीत।

358.
टेप उल्लुओं ने किया, कोयल का संगीत
कौन प्रसारित करेगा, गौरैया के गीत।

359.

पोर-पोर जिसके लिखा, रूप-रंग-शृंगार
वह गुलाब खिलता रहा, काँटों पर हर बार।

360.
प्रलयंकर तांडव हुआ, ख़ूब काल का हास
फिर जिजीविषा माँगती, अब गौरी का लास।

361.
जाना है तो जाव ना, पर जल्दी क्या यार
पल भर बैठो और तो, करें प्यार-तकरार।

362.
आलिंगन करके गयी, ढीठ हवा-सी भाग
लेकिन दंशित कर गयी, रोम-रोम में आग।

363.
सकुचायी, उत्सुक हुई, फिर मन रही मसोस
अब अपने अभिमान पर, लता करे अफसोस।

364.
सत्ताभोगी व्यक्ति के, कुछ व्यभिचारी मीत
पात-पात पर लिख रहे, सदाचार के गीत।

365.
खींच अतुल श्रम से भरा, बूढ़े ने घट एक
सब जल बेटे पी गये, हिल-मिल चतुर अनेक।

कूपों की गहराइयाँ, देख सरों की कीच
सूखे सरिता के नयन, अश्रु उलीच-उलीच।

367.
चलता रहा अगारिया, रेती-रेती खूब
खारे जल में नमक सी, गयी ज़िन्दगी डूब।

368.
करता खेती नमक की, खाता गाँव समाज
वह अगारिया झेलता, अब पैरों की खाज।

369.
दो पैसे के भाव में, लेते नमक खरीद
बिकता रहा अगारिया, ले मीठी उम्मीद।

370.
बिजली-पानी घर-दवा, पल दो पल का प्यार
कुछ न मिला इस नमक ने, तोड़ दिया परिवार।

371.
रूह कँपाती ठंड में, पैर काटती रेत
पर चाँदी-सा चमकता, रात नमक का खेत।

372.
किंतु किसी भ्रम में नहीं, करता वह श्रम रोज
नमक बेचकर कर रहा, दो रोटी की खोज।

373.
दिन दुपहर भर झेलता, रेती के अंगार
गंदा पानी ताल का, पी होता बीमार।

374.
सबके सब खाते नमक, पर सब जाते भूल
नमकहरामी बन गया, सबका यहाँ उसूल।

375.
लिए गिरिस्ती ऊँट पर, नए खेत की ओर
बढ़ता रहा अगारिया, अपनी शक्ति बटोर।

376.
व्यापारी करते रहे, रोज़ शाम रंगीन
पर रेती का वह श्रमिक, सका कभी भी जी न।

377.
कड़ी आँच में खींचता, रहा काँच का तार
पर चूड़ी ने कब किया, श्रमजीवी से प्यार।

378.
लिया आँच में ही जनम, सही त्वचा पर आग
तब चूड़ी के रूप में, सबको दिया सुहाग।

379.
मिले पहाड़ों पर हमें, कुछ मोटे धनवान
जिन्हें रोज़ ढोते रहे, खच्चर से इंसान।

380.
दूर-दूर तक भी नहीं, अब मिठास की गंध
तोड़ दिये हैं नमक ने, मन के सब अनुबंध।

381.
नमक आंदोलन चला, गये महात्मा जेल
रामराज हे, अब नहीं, नमक बनाना खेल।

382.
खारे सागर ने किया, जिसके सुख को क्षार
कोई तो मीठा कुआँ, करता उसे दुलार।

383.
अब न फिसलता दीखता, घर आँगन में सोम
नक्षत्रों की पोटली, कसे हाथ में व्योम।

384.
केका भरते नित्यप्रति, घन को देख मयूर
अब बरसे आषाढ़ तो, हो बेचैनी दूर।

385.
रिमझिम-रिमझिम, छनन-छन, झरने लगी फुहार
धरती महकी भूलकर, अपनी पीर अपार।

386.

गलियारे में दूब के, अंकुर फूटे तीन
झिल्ली, दादुर झूमकर, लगे बजाने बीन।

387.
शुक, गौरैया, गिलहरी, खोज रहे तरु एक
भूमि लजायी, वन कटे, नर का मरा विवेक।

388.
काट बरगदों की जड़ें, करते हैं उद्योग
गमलों में बोने लगे, बौनेपन को लोग।

389.
अब ऋतु की ख़ुशियाँ नहीं, मने न तिथि त्योहार
सब ऋतुओं पर कर रहा, ऋतुपति अत्याचार।

390.
घर-आँगन-छत तक, गया इस तरह भीज
मन पता-सा धुल गया, लत्ता हुई कमीज।

391.
फिसल सड़क पर आ गिरा, कल थीं आँखें बंद
अब अभिशापित यक्ष है, कालिदास का छंद।

392.
वस्त्र समेंट चल रहे, कुछ नेता, कुछ सभ्य
हम अधनंगे तैरते, रहे सदैव असभ्य।

393.
नदी चढ़ी, नौका फँसी, छूट गयी पतवार
और तमाशायी खड़े करते वाक्प्रहार।

394.
अब न बनारस की सुबह, अब न अवध की शाम
राजनीति करने लगी, सड़कों पर व्यायाम।

395.
अर्थ सिद्धि के तंतु हैं, प्रजातंत्र का मूल
मन में अर्थ रमाइये, निष्ठाओं को भूल।

396.
नेतागण ही कर रहे, नव सुविधा का भोग
बासीपन ही ढो रहे, नई उमर के लोग।

397.
शब्द-शब्द मिसरी नहीं, निशि भर जला कपूर
रीति माँगती रह गयी, चुटकी भर सिंदूर।

398.
पलकों में काँटे चुभे, गलियाँ हैं वीरान
पथिक प्रेम का खो गया, चौपट घर दालान।

399.
मुख कुंकुम-सा हो गया, था जिसका कल रात
वह रमणी अब कर रही, मन पर गहरी घात।

400.
अब सावन लिखता नहीं, पात-पात उल्लास
फूल रही लेकिन वहाँ, उन टीलों की घास।