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कालाय तस्मै नमः / खण्ड-10 / भारतेन्दु मिश्र

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451.
अब मन भर मोहन नहीं और न नौ मन तेल
राधा फिरती नाचती, करती बेमन खेल।

452.
आवारा ने कर लिया, सुविधा संग विवाह
दोनों का होने लगा, अब प्रतिपल निर्वाह।

453.
जल-थल-नभ सब में बसा, जिसका रूप अनूप
वह है मेरी प्रियतमा, वह सतरंगी धूप।

454.
सुविधाओं का सोम रस, पीने लगे महंत
अर्थ कथाएँ बाँचते, अब पंडित हनुमंत।

455.
काट रहा पथ की प्रगति, निगल रहा तरु पात
अब मानव के उग गये, आरे जैसे दाँत।

456.
फिर सरिता के कूल पर, फूली सुंदर काँस
लहर-लहर लिखने लगी, रेती पर उल्लास।

457.
तिथियाँ बीतीं, ऋतु गयी, रहे न अब वे लोग
पुत्र पिता का कर रहा, मन चाहा उपयोग।

458.
कल भी खाली हाथ था, अब भी खाली हाथ
लेकिन कल निर्द्वंद्व था, आज द्वंद्व के साथ।

459.
खोल-खोल कर चूसता, अब अलि कलि की देह
हवा प्रसारित कर रही, कहकर सहज सनेह।

460.
टिल-टिल करती गिलहरी, कहती मन का क्लेश
गिद्ध नोचकर खा गये, उसका घर परिवेश।

461.
छिन्न शब्द का पींजरा, उड़ी अर्थ की देह
अब कविता के नाम पर, है खंडहर-सा गेह।

462.
जिनकी आँखों में कभी, था निश्छल सम्मान
पिन जैसी चुभने लगी, अब उनकी मुस्कान।

463.
हम ढोते हैं पीठ पर, प्रश्नों के बैताल
हल होते कब दीखते, उलझे हुए सवाल।

464.
गिरेबान में झाँक ले, मन को और तराश
जीवन भर ढोनी तुझे, ख़ुद ही अपनी लाश।

465.
पंचसितारा आदमी, सतरंगी घर बार
भूखे मन से मन रहे, नफ़रत के त्योहार।

466.
मंगलघट खंडित हुए, धुली अल्पना देख
सारा श्रम निष्फल हुआ, यही भाग्य का लेख।

467.
सर्द हो रही है इधर, फिर मौसम की देह
दाम चढ़े फिर धूप के, गिरा निरंतर नेह।

468.
फिर दधीचि की अस्थियाँ, माँग रहे देवेंद्र
बना रहे यह स्वर्ग सुख, बने रहें वे केंद्र।

469.
काठ सरीखी देह पर, कस नोटों के पेच
फिर अपने सम्मान को, चल मेले में बेच।

470.
कर समझौता मान जा, राजा बेटे! बात
मत बघार आदर्श अब, देख-समझ हालात।

471.
कर्त्ता-धर्त्ता और मैं, सरकारी आदेश
ओ बड़बोले! चुप लगा, क्यों कर रहा कलेश।

472.
मेरे आँसू भी किये, अलमारी में बंद
उसकी हर मुस्कान है, मक्कारी का छंद।

473.
वह कितना गतिशील है, कर इससे अनुमान
कुर्सी में पाये नहीं, लट्टू हैं श्रीमान।

474.
छूट गये बंधन सभी, टूटे बंदनवार
कटे पंख ढोते रहे, परियों का संसार।

475.
चिंताओं की आग में, अपनी देह न भून
चलो काट कर फेक दें, पके हुए नाखून।

476.
किया कसाई ने बहुत, बकरे का सम्मान
जब वह झूमा ख़ुशी से, तभी खींच ली जान।

477.
समझौते कालीन से, बिछे हर जगह आज
लेन-देन में हो गया, अत्याधुनिक समाज।

478.
मानचित्र छोटा हुआ, सिकुड़ी घर की देह
कैप्सूल से बिक रहे, सत्य-अहिंसा-नेह।

479.
फ़िल्मों जैसी जिंदगी, चित्रहार-सी शाम
अखबारों जैसी सुबह, करती मन नीलाम।

480.
चिंदी-चिंदी फाड़ कर, चिपकाता तसबीर
रह-रह सहलाता रहा, कलुआ मन की पीर।

481.
ऊँचे-ऊँचे बोलते, पोले-पोले ढोल
खूब हुई नौटंकियाँ, खुले न अब तक पोल।

482.
क्षण जीवन, क्षण ही मरण, क्षण होता बलवान
क्षण कब रहता हाथ में, क्षण सबका मेहमान।

483.
पुल मत बन, मिट जाएगा, सहते-सहते भार
जड़ें काटकर बहेगी, रोज़ समय की धार।

484.
सुन शंका के क्रूर स्वर, चिंता-गीत अनेक
दुह अपने अस्तित्व को, रच ले दोहा एक।

485.
समय पाँखुरी-सा नरम, समय वंश का शूल
निकल न जाये हाथ से, पकड़ समय की धूल।

486.
ओठों पर मधुमास है, मन के भीतर जेठ
संत सरीखा दीखता, है वह कपटी सेठ।

487.
जिस पर बिजली टूटती, जिस पर गिरती गाज
क्यों उसके ही नीड़ को, नोच डालते बाज।

488.
भाषण दे चलते हुए, सुन दुखिया की गल्प
वायुयान में उड़ गये, अब तो सभी विकल्प।

489.
कल भागी थी छोड़कर माँ, ममता, घर, बाप
नुचे पंख घर आ गयी, अब वह अपने आप।

490.
धरती का जल चूस कर, मेघ न तू यूँ झूम
वायुयान पर बैठकर, देस-देस मत घूम।

491.
मन के जीते क्या मिला, धन के हारे हार
धन है तो मन भी रमा, धन बिन सब बेकार।

492.
धृष्टद्युम्न रचने लगा, पापयुद्ध के व्यूह
धर्म-युधिष्ठिर हो रहे, अब माटी के ढूह।

493.
प्रतिध्वनियों ने शब्दशः रचे प्रलय के गीत
मिली बया को हार ही और बाज को जीत।

494.
रामकथा पढ़ बावरे, छोड़ अपावन कर्म
हर गुंबद की नीव में, राम नाम का मर्म।

495.
मन का मंदिर तोड़ते, रहे यहाँ जो लोग
उनका ही तुष्टीकरण, वोटों का उद्योग।

496.
पंचसितारा गाँव के, जब तुम बने प्रधान
चलीं गोलियाँ रातदिन, मारे गये जवान।

497.
राम लुटे, मौला लुटे और लुटे गुलफाम
प्रजातंत्र के देवता, शत-शत तुम्हें प्रणाम।

498.
हरियाली पर हो रही, बारूदी बौछार
लोकतंत्र की लाश को, ढोती है सरकार।

499.
बात रोशनी की हुई, जलने लगे अलाव
घर-आँगन-गलियाँ जलीं, जले गाँव के गाँव।

500.
तोतों ने जब-जब रचे, समझौतों के गीत
उल्लू ने भाषण दिया, कौवों ने संगीत।