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कालाय तस्मै नमः / खण्ड-14 / भारतेन्दु मिश्र

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653.
अध्यापक से पढ़ रहा, गीता और कुरान
बूढ़ा तोता चाहता, सुख से निकले प्रान।

654.
आँधी में छप्पर उड़ा, बिखर गयी सब फूस
टुकड़े-टुकड़े में बँटा, लेनिन-रोटी-रूस।

655.
बहस निरस्त्रीकरण पर और शांति संदेश
साथ-साथ परमाणु बम, बनते देश-विदेश।

656.
यह भूखों का देश है, वह नंगों का देश
यूरोप हो या एशिया, जनता ढोती क्लेश।

657.
काश्मीर के प्रश्न पर उनके तीखे शब्द
चुभते तड़पाते हमें, जब-तब करते स्तब्ध।

658.
सोन चिरैया के कटे, पुनः सुनहरे पंख
अब विदेश से आ रहे, कुछ पंडित, कुछ शंख।

659.
लो फिर से लगने लगे, यहाँ विदेशी यंत्र
राजनीति है अर्थ की, अर्थनीति परतंत्र।

660.
गोरे काले में कहीं, कहीं ख़ुदा औ राम
कहीं जाति संघर्ष का, छिड़ा हुआ संग्राम।

661.
घर-घर पैन हो रहे, द्वेष घृणा के तीर
उजड़े सारे गाँव हैं, घायल दास कबीर।

662.
पाखंडों के चित्र को, कसे धर्म के फ्रेम
शंख स्वार्थ के गूँजते, दर-दर बिकता प्रेम।

663.
राम चदरिया नेह की, फाड़ी गयी सयत्न
गीध कर रहे अब इसे, फिर सिलने का यत्न।

664.
माया में चिंतन लुटा, कबिरा हुआ निहाल
अब तो उसके वंशधर, करने लगे कमाल।

665.
लुटी बहुरिया राम की, चोर बजाते बीन
धर्म-द्वेष की आँच से, पकने लगी जमीन।

666.
सत्य नारियल-सा सड़ा, घुने चने-सा प्रेम
लिखत-पढ़त में भी नहीं, शेष कुशल औ क्षेम।

667.
पंडित, मुल्ला, बाँटते, मंतर औ’ ताबीज
शहर-शहर कर्फ्यू रहे, ईद मने या तीज।

668.
लिये लुकाठी हाथ में, झेले सबकी पीर
फिर इस युग का ेचाहिए, अभिनव एक कबीर।

670.
अमराई की खोज में, कोयल गयी सुदूर
चुटकी भर-भर फेंकता, अब टेसू सिंदूर।

671.
पीपल ने भाषण लिखा, पढ़ने लगा बबूल
भोंपू जैसे टंग गये, तब कनेर के फूल।

672.
चाँदी जैसी रोटियाँ, सोने जैसी दाल
अब सुरसा से भी बड़ा, महँगाई का गाल।

673.
सावन के झूले कहाँ, गुड़ियों का त्योहार
कहाँ करौंदे की छड़ी, रस की कहाँ फुहार?

674.
फिर तोतों की बैठकें, वही आम के पेड़
जितना पीपल खाँसता, उतनी उगती मेड़।

675.
गलियारा गड़ही भया, भरा हर तरफ़ कीच
तू भी इसको पार कर, अपनी आँखें मीच॥

676.
फूल नहीं, फल भी नहीं, सुरभित नहीं दिगंत
बौर नहीं, कोयल नहीं, आया यहाँ बसंत।

677.
फूल लिया, फल भी लिया, जड़ काटी दिन-रात
हर झोंके में फट रहे, इस कदली के पात।

678.
हाथों में पारस न था, हथकड़ियाँ थीं यार
कैसे करते हम भला, सोने का व्यवहार।

679.
उमस, घुटन, सीलन भरी, लोग खड़े निर्वात
खूब गरजते मेघ तुम, होती कब बरसात।

680.
घटी नहीं गंभीरता, गुरुवर हिले न रंच
धूमकेतु सिर मारते, रचते लोग प्रपंच।

681.
नदिया में बारिश हुई, डूबी नैया एक
सोच समझ जिस पर चढ़ा, था कल रात विवेक।

अपने सुख-दुख की लटें, अपने ही फल भोग
झूल रहे हैं रात-दिन, मकड़ी जैसे लोग।

683.
अब बगुले हैं मुद्दई, कौवे बने वकील
उम्र कै़द हो हंस को, निर्णय देती चील।

684.
पितृपक्ष से दिन चढ़े, हलवा पूरी-पाग
घर-घर की बलि जीमते, बड़े काग के भाग।

685.
मन के इस उच्छ्वास में, टूटा हर विश्वास
डूब-डूब करता रहा, तिनके का आभास।

686.
दर्पन में प्रतिबिंब से, करते-करते बात
दिन बीता, संध्या ढली, लो अब आयी रात।

687.
मुख्यद्वार से बिंध गये, हिरनी वाले नैन
हर आहट करती उसे, पल ही पल बेचैन।

688.
मैं तेरा संवाद हूँ, तू मेरा अनुवाद
एक तुम्हारे स्नेह बिन, सब कुछ है बेस्वाद।

689.
आँखों से पीता रहा, जिसको सारी रात
मूरत निकली काँच की, अब-जब हुआ प्रभात।

690.
अब तक भू की देह पर, सूरज लिखता गीत
नदी नाचती गूँजता, कल-कल-कल संगीत।

691.
खुद को ख़ुद से काटकर, रख शब्दों पर धार
जंग न खा जाए कहीं, सर्जन की तलवार।

692.
नदी नहाती रेत में, मुर्गा बनता ताड़
यहीं पिघलती बर्फ थी, जलता यहाँ पहाड़।

693.
अमलतास पियरा गया, सहमे-सहमे चीड़
पर्वत पर इतनी बढ़ी, इंसानों की भीड़

694.
पाषाणों को काटकर, नदिया गाती गीत
इस घाटी में गूँजता, अनहद का संगीत।

695.
रोज महाभारत कथा, रोज़ मृत्यु संगीत
काल-भैरवी नाचती, समय सुनाता गीत।

696.
तेरी पाती में दिखे, तेरे चंचल नैन
जिनसे मिलकर खो चुका हूँ पल-छिन का चैन।

697.
शब्द बताशे-सा घुला, अर्थ बना तेजाब
अब मलवे के ढेर-से, छितराये हैं ख्वाब।

698.
डंक मारती रूपसी, गला काटते मित्र
बेहद गंदे लोग ही, लेपा करते इत्र।

699.
इस अदने के द्वार पर, कहो भला किस ब्याज
अपनी कुर्सी से उतर, आये पर्वतराज।

700.
मंदिर-अधर, उन्मन-नयन, चित्रित गात, सुअंग
मन फीका, है चित्र में तीखे-तीखे रंग।

701.
हाथी दलदल में फँसा, चींटी चढ़ी जहाज
पता नहीं कब जिंदगी, कहाँ मौत की गाज?

702.
मेंहदी रची हथेलियाँ, कंघी रहीं सँभाल
जब-जब सुलझी एक लट, टूट सौ-सौ बाल।

703.
कल गाड़ी थी नाव पर, अब गाड़ी पर नाव
समझ सका है आज तक, कौन समय का दाँव?

704.
इन आँखों की बात का, आली क्या विश्वास
कहती हैं उनकी कथा, रहतीं मेरे पास।