भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं चला जाऊँगा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:58, 11 जनवरी 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं चला जाऊँगा
बहुत दूर
चाँद और सूरज से परे
अब लौट न पाऊँगा।
फिर भी
कभी हवा बनके
कुछ खुशबू,
तुम्हारे आँगन में
बिखरा जाऊँगा।

ताप जब तुम्हें सताए
मैं बनके बदरा
बरस जाऊँगा,
पर मैं लौट न पाऊँगा।

शर्तों में नहीं जिया;
इसलिए
केवल विष ही पिया
सुकर्म भूल गए सब
दूसरों के पापों का बोझ
मैंने अपने ऊपर लिया
जी-जीके मरा
मर-मरके जिया।

ऐसा भी होता है
जीवन कि
मरुभूमि में चलते रहो
निन्दा की धूल के
थपेड़े खाकर
जलते रहो ।

जिनसे मिली छाँव
वे गाछ ही छाँट दिए
जिन हाथों ने दिया सहारा
वे काट दिए
ऐसे में मैं कैसे आऊँगा?
कण्ठ है अवरुद्ध
गीत कैसे गाऊँगा?

मैंने किया भी क्या
जो दुःखी थे
उनको और दुःख दिया
मेरे कारण औरों ने भी
ज़हर ही पिया
सबका शुक्रिया!

-0-