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सहयात्री / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

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कहानी का मतलब क्या ?
कुछ देर तुम्हारा गुमसुम बैठना
कुछ देर मेरा आकाश की ओर ताकते रहना
इतने में ही बीत जाता है समय ।

हमारे अन्दर का अद्भुत अन्धेरा
तरह-तरह से हमें उल्लसित करता है,
अधीर करता है उद्भासित करता है,
उदास करता है । सबसे कह नहीं पाती ।

हाथ थामकर चल रहे हैं एक-दूसरे का
तो पार कर चुके हैं कितने ऊबड़-खाबड़
और समतल रास्ते नदी, समुद्र, रेगिस्तान और
पहाड़ जंगल, शहर और गली-गलियारे आत्मा के ।

दुख से भरा जहाज़ आकर
जितनी भी बार रुका है तट पर
तुम्हारे या मेरे
कितने धीरज के साथ
ख़ाली किए हैं बोझ हर बार ।

अन्धेरे से डरती हूँ
तभी तुम गीत गाए जा रहे हो
जो गीत मुझे अनमना करते हैं
आह्लादित करते हैं
जो गीत मुझे पागल बना देते हैं तुम्हारे प्यार में

फिर भी ढेरों बातें अनकही रह जाती हैं
हमारे बीच क्या तुम जानते हो
कि रूठने का भी एक संविधान होता है
 ख़ालिस प्रेम में ।

तुम्हारे सुख-दुख, अभाव असुविधाओं
सपनों और सम्भावनाओं की रखवाली करती
मैं उनीन्दी बैठी रहती हूँ तुम्हारी आत्मा की चौखट पर
तुम्हारा गीत सुनने को कान लगाए रहती हूँ
अन्धेरा घना होते समय
तुम्हारी सहयात्री होने की कामना करती हूँ
हर जन्म में, शायद तुम नहीं जानते ।

शायद तुम नहीं जानते
हर बार कैसे मैं और भी नशाख़ोर बन जाती हूँ
तुम्हारी चाहत के नशे में ।