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अँगूठा / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

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पछतावे से भला
तिलमिलाया ही कहाँ मैं !

माँगा था अँगूठा
दे दिया ख़ुशी-ख़ुशी ।

आपके छल
और मेरी निश्छल दृष्टि के बीच

पड़ा रहा वह अँगूठा
पड़े-पड़े प्रतीक बन गया
इतिहास में ।

नहीं ! विस्फोट की आवाज़
नहीं आई कहीं से
आपकी मन्द-मन्द मुस्कान के सीमान्त पर

नतमस्तक भाग्य मेरा
खड़ा रहा स्थिर
बेहिचक।

कटे घाव से रिसता ख़ून का झरना
तब भी धो न सका
आपकी माया की परतें,

तीव्र यंत्रणा में भी होठों से
उभरती मुस्कान
सिखा न पाई आपको
तटस्थ रहने का कौशल

चिरन्तन अभिलाषा की आहुति देते समय
जान-बूझकर नहीं देखी आपने
मेरी आँखों की पुतलियाँ

सन्तुष्ट दिखना भी एक कला है
आप ही से सीखा था उस दिन।

समझ गया था
अब से मैं फिर कभी नहीं रहूँगा
आपकी आशंका के आकाश में
एक उज्वल नक्षत्र बन,
समझ गया था

आपके आशीर्वाद से मिली
मेरी लाचारी ने
मुक्त कर दिया आपको
अकारण आतंक से
आगामी दिनों के लिए ।

मैं तो तुच्छ हूँ
क्यों कोसूँ अपने भाग्य को
एक अँगूठे के बदले

युग-युग तक अमर हो जाने का लोभ
आख़िर किसे नहीं होता !