शब्द भी
नाकाफ़ी हो जाते हैं कभी-कभी
बयान करने में अक्सर
क़ासिर हो जाती है ज़ुबान
गलते अंगों की तरह
कट-कट कर गिरती जाती है भाषा
व्याकरण की पीठ से बहने लगता है मवाद
मैं वहशत में फाड़ने लगता हूँ विराम-चिह्नों को
और उधेड़ने लगता हूँ भाषा की सुघड़ बुनाई
कविता, मिट्टी के लोंदे की तरह
थसक कर रह जाती है
किसी अदृश्य तगाड़ी में
जिसे एक स्त्री, दुनिया की शुरुआत से ही
ढो रही है अपने सिर पर
जिन्हें माँ के गर्भ में भी
नंगा करने को उद्धत हैं हत्यारे
उन स्त्रियों के लिए मैं
फफकता हूँ देर रात
भीतर कोई धारदार हथियार से जैसे
खरोंचता है मुझे
दृश्य, तलवार की तरह चमचमाते हैं
और मैं सोचता हूँ
कितने समुद्रों का पानी
दरकार होगा
बुझाने के लिए
इस कमबख़्त धधकते सूर्य को…