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हर मोर्चे पर / संतोष श्रीवास्तव
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एक चट्टान पर खड़े
मदन महल के झरोखे से
देख रही हूँ अस्तबल
जहाँ बंधता था
रानी का घोड़ा
सोचा तो होगा रानी ने
एक पल को
जब त्याग दिए थे आभूषण
उठा लिए थे शस्त्र
लेकिन नहीं त्यागी थी
कोमलता वात्सल्य
मन का उत्साह
वीरता के
अतुल्य साहस संग
बना रहा सदा
डटी रही रानी
अन्याय ,गुलामी
अत्याचार के खिलाफ
पांच सौ साल
नहीं उससे भी पहले से
डटी है नारी
आज भी लड़ रही है युद्ध
हर मोर्चे पर