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शांति दो / संतोष श्रीवास्तव

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तूफान के आसार हैं।
प्रकृति सहम कर ख़ामोश है
चिड़ियाँ धूल में नहा रही हैं
मेरे एकांत में कहीं से
एक तिनका उड़ता आता है
क्या यह पहली दस्तक है
तूफान की
यह तो तय है कि वह
आहिस्ता नहीं आता
वह सुरसा-सा मुख बढ़ाता
सब कुछ धूल धूसरित करता
पल भर में विनाश का
तांडव दिखला देता है

उसे चाहिए पेड़ों का
टूट कर गिरता मंज़र
उसे चाहिए समुद्र की
ऊँची लहरों का हाहाकार
उसे चाहिए
मछुआरों की लाशें
हिंस्र पशु-सा उसका
बनैला रूप
जब थर्रा उठती है
हर जीवित आस
उसे चाहिए कातर चीखें
उसे चाहिए जंगल का तड़पता
विनाश के कुंड में समाता
सदी का सच
सदी का एक सच यह भी है
कि अहम् ब्रह्मास्मि के
फितूर से उपजा चक्रवात
निगल रहा है अपने भंवर में
जीवन की
आखिरी सांस तक को
नैसर्गिक तूफान तो
कुछ समय रुक कर
चला गया
पर सदी के इस महाकाय से
कैसे निपटें
जो इंसान के द्वारा
इंसान के लिए,
इंसान का मरणासन्न तक
खून चूसने को तत्पर
अब सारे उपाय धूमिल हो रहे हैं
महाशक्ति के पैर उखाड़ने को
अब महाशक्ति का जुनून
विश्व को निगलने को आतुर है
हे ईश्वर
इन कातर चीखों से
बार-बार झंकृत
हमारे हृदय के तारों को
शांति दो
शांति दो कि विप्लव की
ज्वालाएँ मीठी नरम आंच
बन जाएँ
जो हमारे ठंडे पड़ रहे
अस्तित्व को गर्माहट दे सकें
हम उस आंच की रोशनी में
देख सकें
अपने जीवन का सुनहलापन