रैन बसेरा / संतोष श्रीवास्तव
आज फिर एक कवि के
निधन का समाचार है
आज फिर मैं आघात से
गुजर रही हूँ
किताबों से
उभरा है उसका चेहरा
अब कहाँ मुमकिन है
उसे देख पाना
मैं उसके लिखे पर
हथेलियाँ फिराती हूँ
शब्दों को पकड़ने की
कोशिश करती हूँ
पर वह तो
लिख कर चला गया
शब्दों में ख़ुद को झोंककर
दीनता और अभावों भरी
जिंदगी जी कर
इस सबके बावजूद
जिसने दिया था
अजनबी महानगर में
एक रात का ठौर
जबकि कड़कड़ाती ठंड में
मित्र कहाते लोगों ने
हाथ खड़े कर दिए थे
तब कहा था उसने
क्या रात स्टेशन
पर ही बिताओगी
सीधे चली आओ
मेरे घर का रास्ता
घुमावदार नहीं
रोटियाँ भी सिंकी रखी हैं चार
दो तुम खा लेना, दो मैं
फिर पीते हुए काली चाय
अंगीठी तापते हुए
हम करेंगे बहस
आधुनिक कविता पे
वह ज़िन्दगी के आठ दशक
जीकर चला गया
कहता गया
जिंदगी रैन बसेरा है
हम सब
रात भर के मेहमान
और मेहमानों का
कहाँ होता है अपना कुछ
जिसका हो अहंकार