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फिर से रचनी होगी सृष्टि / संतोष श्रीवास्तव

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सदियों पुरानी बात है
जब बिंदु से बिंदु जोड़कर
वह दीवार पर मांडणे
बना रही थी

उसके होठों से निकले शब्द
लोकगीत बन
उजले दिनों की
धरोहर बन गए थे

उसके पैरों में बेड़ियाँ
जिसे वह पाजेब समझ
अपलक निहार रही थी
पहनाकर, सारे पुरुष
सांझ होते ही
बरगद के नीचे
आसन जमाए
चौपाल में बतरस का
आनंद ले रहे थे
हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे
बीड़ी फूंक रहे थे

वह अपने
नन्हे-नन्हे पलों को
नसीब मान
नहीं समझ पा रही थी
खुद पर होते
अत्याचारों को

उसे घर की दहलीज़ में झौंक
पुरुषों ने छीन ली थी
आजादी की हर सांस

यह बात सतयुग की नहीं थी
यह बात विदेशी शासकों के
शासनकाल की थी
जिसमें रची गई थी पितृसत्ता

अब भोजपत्र के जंगलों तक
हवाओं ने चुगली कर दी है
उसके दहलीज़ लांघने की
पाजेब के पेच खोलने की
भोजपत्र पर
नया इतिहास लिखने की

मनु बन मत्स्य से बंधी नौका में
सुरक्षित मानव सभ्यता से
फिर से सृष्टि रचने की