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प्रतिरूप तेरा / संतोष श्रीवास्तव

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तुम्ही मेरा कर्म
मेरी आस्था ,मेरा किनारा
तुम्ही हो चेतना का
प्लवन मेरा
थाम लेते हो तुम्ही
दुर्गम पथों पर
टूटता विश्वास मेरा

बनी जिस पल
जिंदगी मेरी पहेली
जग उठा अवसाद ,पीड़ा
मान ली जिस पल पराजय
ठीक उस पल
एक अंतर्नाद गूंजा
तुम्ही हो,तुम्ही हो
आनन्द का प्रतिरूप
जो जीत बन भासता है
मेरे मानस मुकुर में