Last modified on 30 मार्च 2025, at 21:15

पाना है राजरानी-सा सुख / संतोष श्रीवास्तव

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:15, 30 मार्च 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

माघ की हवाएँ
गंगा की बूँदों को लिए
सहला जाती हैं बालों को
जैसे माँ सहलाती थी
भोर होने की सूचना दे
आँख खुलते ही
नजर पड़ती थी
माँ के वात्सल्य पर
हाथ में पकड़े
प्रसाद के दोने पर
उस पर रखा
गेंदे का फूल
छुआती थीं माथे पर
राजरानी-सा
सुख की कामना
मेरे लिए

अब माँ नहीं हैं
आस्था का कुंभ जारी है
जारी है संघर्ष
नहीं देखना है
हर क़दम पर
नियति के बिछे काँटे
नहीं सहलाने हैं
पाँव के छाले

माँ की आस्था
जीवित रखनी है
पाना है राजरानी-सा सुख