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परिभाषा / संतोष श्रीवास्तव

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हिमालय की चोटियों पर तुम
कन्दराओं ,गुफाओं में तुम
धूनी रमाए तुम
घने जंगलों में तुम
गंगा के उगते सूरज के
सुनहले तट पर तुम
बहती संगीत धारा में तुम
पौष मास की चंद्रिका में
झिलमिलाते तुम
ध्यान मुद्रा में तुम
संपूर्ण धरती में तुम
आसमान में तुम
मेरी आँखों ,साँसों में तुम
मेरे बाहर और अंदर भी तुम
ओ सृष्टि के कण-कण में
छिपे प्यार
मेरा कस्तूरी मृग-सा तुम्हे
ढूँढना,
मान लेना कि नहीं मिला
सुराग तुम्हारा
अपने भीतर
प्रवंचना को उतार
आहत हो लेना
शायद यही हो प्रेम की
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