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एक संगम ऐसा भी / संतोष श्रीवास्तव

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गंगा जमुनी तहजीब का
संगम कहते थे जिसे
वह बंट गया है संप्रदायों में

जो कभी जादू की तरह
छाया था वजूद पर
कैसे उठे थे प्रेम के किस्से
बाजीराव ,मस्तानी
जोधा ,अकबर
महाराज रणजीतसिंह ,गुलबहार
जिन्हें पढ़ते हुए
तिलिस्म के कई दरवाज़े
खुल गए थे

लेकिन उन तमाम दरवाजों में
अब एक भी दरवाज़ा
ऐसा नहीं रहा
जो खुलता हो उन रास्तों पर
जहाँ हमारे पुरखों ने
नींव रखी थी
गंगा जमुनी तहजीब की
 
प्यार नहीं सुनने में आता
सुनने में आता है लव जिहाद
अब दो संस्कृतियों के संगम पर
भाईचारा ,प्रेम और विश्वास नहीं
नफरत ,द्वेष ,हिंसा ,कट्टरता का
बोलबाला है
अब संगम का शीतल जल
तपती रेत में तब्दील हो गया है