Last modified on 27 नवम्बर 2008, at 00:11

तीन सवाल एक साथ / एरिष फ़्रीड

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:11, 27 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एरिष फ़्रीड |संग्रह=वतन की तलाश / एरिष फ़्रीड }} <P...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या एक कविता
एक ऎसी दुनिया में
-- जो अपने में ही टूट-फूटकर
शायद पतन के गर्त में जा रही हो--
अब भी सरल रह सकती है?

क्या एक कविता
एक ऎसी दुनिया में
-- जो शायद पतन के गर्त में जा रही हो
अपने में ही टूट-फूटकर--
सरल के सिवा कुछ और हो सकती है?

क्या एक दिनिया
-- जो शायद अपने में ही
टूट-फूटकर पतन के गर्त में जा रही हो--
कविता पर हुक्म चला सकती है?

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य