मैं सेमर का फूल बनूंगी / आकृति विज्ञा 'अर्पण'
मैं सेमर का फूल बनूंगी
किसी देवता के दर पर
नहीं चढ़ाई जाऊँगी
ना दुल्हन के जूड़े में,
न दूल्हें के सेहरे में
ना नवयुगलों की बनूं निशानी
ना गीतों में गायी जाऊँगी
मैं अनभिज्ञा जग की नज़रों से
नाप सकूं रफ़्तार सड़क की
बूढ़े श्रमिकों के एँड़ी की
फटहन मैं सहलाऊँगी
इससे अच्छा क्या होगा?
ना समय किसी का मेरे हिस्से
ना चाहेगा कोई गंध मेरी
जग से हारी एक वियोगिन
देख मुझे मुसकायेगी
इससे अच्छा क्या होगा
इक बच्चा अनजाना
गंध रीति का भान न हो
न चिंता होगी मर्यादा की
पद जैसा अभिमान न हो
खेलेगा वह मेरे संग
इससे अच्छा क्या होगा
फागुन के आने से पहले
पथ दमक रहा हो लाली से
लज्जा से उपर उठना है
कहें स्वयंभू काली से
बन निष्काम सुंदरी झर जाऊँ
इससे अच्छा क्या होगा
मैं सेमर का फूल बनूंगी
किसी देवता के दर पर
नहीं चढ़ाई जाऊँगी