Last modified on 27 नवम्बर 2008, at 00:38

आज और कल के बीच / सुभाष काक

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:38, 27 नवम्बर 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हर छाया में मैं शकुन ढूँढता हूं।


समय का क्रम ऐसा था,

जैसे बाघ की तीव्र छलांग

या मृग की उन्मत्त दौड,

और अब इसके पंख

तितली की तरह थरथराते हैं।


मैं पल के आवरण में ही खो गया।

फिर भी मैंने नीले आकाश को देखा

और एक, उंचे नग्न पर्वत को

जिसके आगे गहरी दरार थी,

और दूसरी ओर हरित पथ

पीपल की कतारों से आंचलित

वक्रा नदी की ओर जाता हुआ।

इस पथ पर मैं दोनों दिशाओं

की ओर चला हूं।


यह पल मुझे दूर ले जाता हैः

मेरे पिता मेरी अवस्था के हैं।

अपने बालपन से मैं

अपने बच्चों को देखता हूं।


रास्ते ऊभरते हैं

और फिर मिट जाते हैं,

प्रतिछाया में ही हम सिमट जाते हैं,

भूख और तृष्णा से पीडित

हम छटपटातें हैं।


अपरिमित को एक में पाया

और एक को खण्डित देखा।

भयभीत,

मैंने धरती को कदमों से मापा।

विचित्रता कुछ दूर हुई।