Last modified on 7 जून 2025, at 23:58

लोकतंत्र पर दोहे / वीरेन्द्र वत्स

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:58, 7 जून 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

घर के भेदी बुन रहे षडयंत्रों का जाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

सना हुआ है रक्त से भारत माँ का भाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

टुच्चे नेता राष्ट्र की पगड़ी रहे उछाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

जाति-धर्म की रार में जीना हुआ मुहाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

कहीं खिंची तलवार है कहीं तनी है नाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

भ्रष्टाचारी कर रहे भारत को कंगाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

गाँव-गली में चौक पर गुंडे करें बवाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

कोई भूखा मर रहा कोई काटे माल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल

करना-धरना कुछ नहीं सिर्फ बजाते गाल
लोकतंत्र ही बन गया लोकतंत्र का काल