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विदा होती बेटियाँ और अनजानी ज़मीन / पूनम चौधरी

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विदा होती हुई बेटियाँ
मायके की देहरी से
अपनी जड़ों को कुछ इस तरह समेटती हैं
जैसे किसी पुरानी किताब के पन्नों से
गिरते हुए सूखे फूल—
जो अब भी महकते हैं,
जो अब भी उन बीते लम्हों की
मौन गवाही बनते हैं।

हथेलियों में घर की मिट्टी की
सुगंध समेटे,
वे जब ससुराल की चौखट पर
कदम रखती हैं,
तो भीतर कहीं एक अनकहा डर
धीरे से सिर उठाता है—
क्या यह ज़मीन भी
उन्हें उतनी ही स्नेह से थामेगी
जितना माँ का आँगन?

 नई मिट्टी, नई जड़ें

विदा होती बेटियाँ
ससुराल की ज़मीन में
अपनी जड़ों को
धीरे-धीरे रोपने लगती हैं,
पर हर सुबह की धूप
नए प्रश्नों की गर्माहट लिए आती है,
और हर रात की चाँदनी
कुछ अनकहे एहसासों की परछाइयाँ छोड़ जाती है।

वहाँ पहले से जमी पुरानी बेलें,
कभी स्नेह से लिपटती हैं,
तो कभी अपने विस्तार में
नवागंतुक को गुम करने लगती हैं।
देवरानी, जेठानी, ननद, सास—
रिश्तों की परिभाषाएँ
हर दिन नए रूप लेती हैं,
मगर 'सहेली'—
वह शब्द अब भी
घर के किसी कोने में
चुपचाप बैठा,
अपनी जगह ढूँढता है।
 क्या यह धरती कभी अपनी होगी?

क्या कोई ऐसा दिन आएगा
जब बेटियाँ विदा होंगी
बिना अपनी जड़ों को उखाड़े?
जब वे आँसुओं से
नई मिट्टी को नम करने की
कठिनाई से मुक्त होंगी?
जब एक आँगन से
दूसरे आँगन तक की यात्रा
बोझ नहीं,
बल्कि सौम्य परिवर्तन बन जाएगी?

शायद तब,
जब यह अनजानी ज़मीन
उन्हें अजनबी नहीं मानेगी—
जब सास माँ बनकर,
ननद बहन बनकर
उनके अकेलेपन को थामेगी,
जब घर की स्त्रियाँ
सिर्फ रिश्तों में नहीं,
दिलों में भी जुड़ेंगी
एक दिन ऐसा भी आएगा

एक दिन ऐसा भी आएगा
जब बेटियाँ विदा होंगी
और उनकी आँखों में
न तो डर होगा,
न कोई संशय—
क्योंकि वे जान चुकी होंगी
कि यह नई ज़मीन
अब पराई नहीं रही—
अब यह भी
उन्हीं का घर है।
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