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किसान का हलफ़नामा / कुमार कृष्ण

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मैं हल के फाल की
गर्म नोक से लिखी क़िताब हूँ
जिसे कोई दूसरा नहीं पढ़ता
मैं ज़मीन की जीभ पर टपकता
नमकीन स्वाद हूँ
मैं हूँ दरवाज़े पर लटका सपनों का तोरण
बार-बार चक्की में पिसता अन्न हूँ
मैं हूँ जंगल-दर-जंगल भटकती
तितली की भूख
आग में पकती रोटी
पानी में ठिठुरता गर्म भात हूँ
मैं हूँ बच्चों का बस्ता
बादलों का खिलौना
बैलों की नींद हूँ
मैं किसान-
राजा की पतंग, बनिये की दुकान हूँ
जलसों में खड़ा
नंगे पाँव वाला भगवान हूँ
मैं शहर के चौराहों पर हंसती
सबसे खूबसूरत तस्वीर हूँ
मैं हूँ भूख की क़िताब का परिशिष्ट
अंतिम पृष्ठ
हर भाषण पर बजने वाली ताली हूँ
आसानी से दी जाने वाली
कर्ज लिप्त गाली हूँ
मैं गुरबत के पैबन्द से भरी
ख़ुशहाली की क़िताब हूँ
बरसों पुराने किसी परनोट का हिसाब हूँ
मैं लोकतंत्र के खलिहान मैं पकता-
अनाज हूँ
गाँव-गाँव उड़ती गोरैया की आवाज़ हूँ
मैं हेंगे की सरसराहट
धरती का विश्वास हूँ
सदियों से ठगा सरकारी परिहास हूँ
फिर भी कल की उम्मीद में दबी
आग की आस हूँ।