भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दारचा-पुल / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:43, 14 जुलाई 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=गुल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जितनी बार ले जाता हूँ मैं
इस ओर से लोगों को उस ओर
मैं थरथराता हूँ उतनी ही बार
कांपने लगती हैं मेरी फौलादी बाहें
मैं मोमो पकाते, दाल-चावल खिलाते-
दोरजे की उम्मीद हूँ
मैं शापित पहाड़ों के बीच
पैरों से निकलने वाली अकेली आवाज़ हूँ
कोई नहीं बांटता मेरा अकेलापन
लद्दाखी कुर्ता पहनकर
जब चाँद आता है दीपक-ताल में नहाने
हम दोनों
इशारों-इशारों में करते हैं बातें रात भर
चाँद जानता है
मेरे पास है लोहे का लम्बा कोट
मैं पहनता हूँ उसे हर मौसम में साल भर
मैं निर्जन पहाड़ों में लोहे की आवाज़ हूँ