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ऊँची धजा फ़रक रही / निहालचंद

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ऊँची धजा फ़रक रही, सेनापति के भवन की ।
पहोंच गई दरवाज़े पै, सैरन्ध्री सादे मन की ॥टेक॥
बसन्त बहार प्रजा लूट्टै थी, ख़ुशबू फूलाँ की उट्ठै थी,
जित छूट्टै थी, सुगन्धी, मन्दी-मन्दी चाल पवन की ।1।
मिलग्या बिराट भूप का साळा, जिस पापी के था मन मैं काळा,
दासी दीखी रुपग्या चाळा, जड़ जामगी बिघन की ।2।
जिसके नाम की बेदन जागी, आज वा चीज सामने आगी,
कीचक कै झळ लागण लागी, बिरह काम अगन की ।3।
निहालचन्द कहैं बावळी-सी होरी, पकड़ रही मन कपटी की डोरी,
थी शील सती पतिभ्रता गोरी, वा साँवले बरन की।4।