गूँगी-बहरी दीवारों पर
एक उदास घड़ी ।
विचारार्थ अब भी रसीद है
बडे़ 'स्साब' का टेबल ख़ाली,
अजगर डस्टबिन की अरज़ी
बिल फर्ज़ी है, बातें ज़ाली,
सरकारी कैलेण्डर का
सहती उपहास घड़ी ।
कल-पुर्जों की माँगें फिर भी
हेडफ़ोन, रीमिक्स तराने,
गुमसुम चलने लगी आजकल
वही व्यस्तता, वही बहाने,
ब्रेड, कर्टसी, ठगी और
करती उपवास घड़ी ।
कुहरा, सड़कें, रूठा सूरज
पंचिंग-दौड़ और कोलाहल,
ठीक समय पर कमरे खुलते
आदिम और मशीनी हलचल,
धूप जोहती छत —
दिन ढलने का अहसास घड़ी ।