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ईश्वर और मैं / पूनम चौधरी

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मुझे ईश्वर अक्सर
सुबह के उस शांत क्षण में मिले,
जब पहली धूप
आँगन में निःशब्द उतर आती है—
मानो कह रही हो,
“ऊर्जस्वित रहो, थको मत।”

कभी वह
पत्तों पर जमी ओस की बूँद में मिले,
जो गिरने से पहले
अपनी पारदर्शिता में
समेट लेना चाहती है पूरा व्योम।

कभी वह
अरण्य-गर्भ में छुपे
एक अदृश्य पगचिह्न-से मिले,
जो मेरे अंतर्मन की उलझी दिशाओं में
अचानक एक मौन पथ खोल दें,
जब मैं अपने ही भय के भीतर
भटकने लगूँ।

मैं गलत से इसलिए बचती हूँ—
कि कहीं यह स्नेह-धारा,
जो पीढ़ियों से पीढ़ियों तक
निर्मल और शांति से बहती रही है,
मेरे हाथों में आकर
मटमैली न हो जाए।

ईश्वर—
वह हर बार स्वयं उपस्थित नहीं होते,
पर जाने कितनी स्नेह-धाराओं को
मेरे जीवन में प्रवाहित कर देते हैं।

कभी यह धारा
किसी अपरिचित की आँखों में
विश्वास बनकर चमकती है,
कभी किसी पुराने मित्र की
मौन लहरों में,
कभी किसी बुज़ुर्ग के हाथों में
आशीष के स्पर्श में।

मैं डरती हूँ—
कि मेरी कोई भूल
इन स्नेह-धाराओं को
सूखने पर विवश न कर दे।
डरती हूँ कि
जिनकी मौन प्रार्थनाओं में मेरा नाम है,
वे प्रार्थनाएँ कहीं मेरे लिए
उठना बंद न कर दें।

ये स्नेह-धाराएँ संयोग से नहीं बहतीं—
ये समय के आदि स्रोत हैं,
जिनमें सभ्यता की पहली ध्वनियाँ
और मनुष्यता की पहली श्वास मिली है।
इनका प्रवाह—
कभी पाषाणों से टकराकर गूँजे,
कभी चुपचाप रेती में समा जाए,
पर रुकता नहीं—
जब तक कोई इन्हें कलुषित न कर दे।

मेरे लिए निश्छल,
विवेकपूर्ण जीवन,
नियम-पालन मात्र नहीं,
यह उस जल को निर्मल रखना है,
जो मुझे अनगिनत अज्ञात तटों से
उपहार में मिला है।

मैं चाहती हूँ—
जब भी मेरा स्मरण हो,
तो उनके अंतर में
वही शीतल, पारदर्शी धारा बहे
जो इन स्नेह-धाराओं की जड़ में है—
वही, जिसे ईश्वर
मेरे भीतर सहेजना चाहता है।

क्योंकि —
ईश्वर का क्रोध
सदैव तांडव,
प्रलय,
वज्र की तरह नहीं गिरता,

वह तो बस
मोड़ देता है,
स्नेह धाराओं का रुख
अन्य दिशाओं में,
और जब ऐसा होता है,
तो इतिहास के मानचित्र पर
एक सम्पूर्ण नदी
लुप्त हो जाती है।

इसलिए मैं बचती हूँ—
ताकि
मेरे जीवन की स्नेह-धाराएँ,
अदृश्य सहयोग,
गाढ़ा स्नेह,
और अनकहे आशीष
अपनी धारा न बदलें।

और जब ईश्वर,
अनगिनत रूपों,
और
अपनी अजस्र धाराओं के साथ,
खड़े हों मेरे समक्ष,
तो मैं उनकी आँखों में देख सकूँ—
वैसे ही,
जैसे कोई नदी
अपने उद्गम को पहचानती है,
और लौटकर कहती है—
“मैं अब भी बह रही हूँ— पावन, निर्मल
और
निर्विकार।”

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