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मन बंजारे / विनीत पाण्डेय

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मन बंजारे गीत सुनाने बोलो कहाँ-कहाँ जाओगे
जहाँ-जहाँ जाओगे पीड़ाओ के ही मरुथल पाओगे

अगर नेह का उपवन है तो परिस्थितियों के शूल पड़े हैं
बैरागी भावों से पहले मोह के पर्वत बड़े-बड़े हैं
सम्बंधों में अनुबंधों की गांठों के क्रंदन का स्वर है
अमर लताओं से जीवन की भरी हुई हर एक डगर है
खारी बूंदों को तुम मीठे सुर से कैसे बहलाओगे
जहाँ-जहाँ जाओगे पीड़ाओ के ही मरुथल पाओगे

हानि-लाभ की गणना में ही लगा हुआ है यह जग सारा
अपनी छाया भी तब तक थी जब तक साथ रहा उजियारा
यदि अपेक्षा हो तो त्यागो इस तप का वरदान मिलेगा
सूखी नदियों के तट पर जो कुछ होगा निष्प्राण मिलेगा
कैसे कोमल भावों को तुम पाषाणों तक पहुँचाओगे
जहाँ-जहाँ जाओगे पीड़ाओं के ही मरुथल पाओगे

स्वप्न सलोन टूट रहे हैं अंबर के तारों से मन में
और कल्पनाओं को पल-पल सत्य दिख रहा है दर्पण में
पीछे छूट हैं जो भी उन चिन्हों में बस क्षोभ बसा है
आगामी पथ भी आशंकाओं के तम से कसा-कसा है
जो समक्ष है वह यथार्थ है उसको कैसे झूठलाओगे
जहाँ-जहाँ जाओगे पीड़ाओं के ही मरुथल पाओगे