सड़क-दर-सड़क
हज़ार बरस से
भटकता रहा मैं
चुटकी भर
रोशनी की तलाश में ।
सोचा था
रोशनी मिल जाए
या रोशनी के बजाए
उसे
महसूस करने लायक
थोड़ी सी आँच ही सही
तो आहिस्ते-आहिस्ते
अपने भीतर
उतरकर देख पाऊँगा
आदिसृष्टि का
अथाह अन्धेरा
और उसमें
दिगन्त तक गुम्फित
एक सद्यभूमिष्ठ
शिशु की चीख़ ।
शब्द तो, ख़ैर, सुना
लेकिन नहीं जाना था तब
जिसे रोशनी का
तज़ुर्बा नहीं
अन्धेरे को
कैसे पहचानेगा वह
सृष्टि