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ज़मीनी आदमी / देवेन्द्र भूपति / राधा जनार्दन

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जिस भूखंड में अश्व जन्म नहीं लेते
एक बर्फ़ीले हिमवान की उठान में चन्द्र
समुद्र-नाद और धोखेबाज़ ढलानों के हाहाकार,
खेतों से प्रवहित बर्फ़ीली नदियों की शोर
जिस धरा में संगीत बन जाती
वहाँ, मैं एक ज़मीनी इनसान हूँ ।

मेरे चार सौ देवता हैं
तैंतीस करोड़ बन्धु जन हैं
उस प्राचीन समय में मैं अवतरित हुआ
जब स्थायित्व, अर्थ और न्याय समृद्ध था

यात्रारत सहमानवों की राहों में मिला सब, मैंने भोगा
जीवन के दिन और रात यहीं घूमते
— सहयात्रियों के मरणगीत, ईश्वर की बुदबुदाहट
चौपायों का हरा विस्तार सब यहीं

फिर भी… एक अश्व ही
मुझे ढोकर चलता है ।