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बीड़ी बुझने के क़रीब (कविता) / मानबहादुर सिंह

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एक क़मीज़ जिसमें अपनी पहचान
वह पहनता है

सभी अपनी पहचान ही पहनते हैं
क़मीज़ के रंगों में ।

वह मिल सकता है — किसी भी समय
चौमुहानी के बग़ल, फ़क़त अली की दुकान पर
बटोरता रंगीन क़तरनें।

क़मीज़ के बाहर का वह हिस्सा
जिस पर सतरंगी टोपी-तिरछे धर
पुलिया पर बैठा
कान पर से अधजली बीड़ी उतार सुलगाता है ।

ठीक उसी वक़्त
मैं उसके सामने खड़ा होता हूँ

मुँह में बीड़ी का पतला बासी सिरा
कसैला धुआँ उगलता है
सामने सुलगता धुआँ आँखों में छलकता है ।

धुआँई हथेली को माथे पर धरकर
सलाम ठोक पूछता है —

अगला चुनाव कब होगा ?