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प्रेम का भूगोल/ प्रताप नारायण सिंह

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मैं ढूँढ़ता हूँ
तुम्हारी गहराई में छिपी वह अग्नि
जो मेरे अंधकार को भी उजास दे सके।

मैं चाहता हूँ
तुम्हारे वक्ष के शीतल स्रोत से
अपने प्यासे मन को भर लेना,
और तुम्हारी धमनियों के उबाल में
अपने शून्य को जला देना।

तुम्हारे स्पर्श की लहर
मेरी अस्थियों में संगीत बो देती है,
तुम्हारे मौन की छाया
मेरे भीतर एक नयी भाषा गढ़ देती है।

मैं तृषित हूँ—
पर अन्न का नहीं,
तुम्हारे रहस्य का।
मैं प्यासा हूँ—
पर जल का नहीं,
तुम्हारे अंतरंग आलोक का।

जब तुम अपने स्वर की नोक से
मेरे भीतर की गाँठ खोलती हो,
तब मैं जान लेता हूँ—
प्रेम देह नहीं,
बल्कि आत्मा का अपरिमित भूगोल है।