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अंतिम अतिथि / प्रताप नारायण सिंह

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जब वह क्षण आएगा
और दरवाजे पर कोई चुपचाप खड़ा होगा,
मैं जान लूँगा—
यह वही है,
जिसकी प्रतीक्षा में
हर ऋतु ने अपने रंग बिखेरे थे।

मैं उसे भय से नहीं,
सत्कार से बुलाऊँगा,
जैसे घर आए प्यासे पथिक को
जल दिया जाता है।

उसके सामने रखूँगा
अपनी यात्रा की थाली—
पसीने की गंध,
हँसी की गूँज,
टूटे सपनों की राख,
और पूरे हुए स्वप्नों की रोशनी।

मैं चाहता हूँ
कि वह लौटे
मेरे अनुभवों से भरकर,
और कहे—
यह जीवन व्यर्थ नहीं गया।

क्योंकि मैंने हर सुबह को
पहली बार देखा,
हर रिश्ते को
अन्तिम अवसर माना,
और हर क्षण को
एक सम्पूर्ण अनन्तता।

जब वह अतिथि विदा होगा,
मैं मौन होकर भी बोलूँगा—
“मैंने इस पृथ्वी को
केवल छुआ नहीं,
बल्कि इसे जिया
पूरी प्रगाढ़ता के साथ।”