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थकी हुई सुबह/ प्रताप नारायण सिंह

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आज सुबह उगी,
पर उसकी आँखों में चमक नहीं थी,
जैसे रात भर धरती ने
सपनों का बोझ ढोया हो।

पेड़ खड़े थे,
पर पत्तों में कोई सरसराहट नहीं,
फूल खिले थे,
पर उनका रंग मानो सहमा हुआ था।

लोग गुजरे सड़कों से
तेज, अनमने,
जैसे घड़ियों की सुइयाँ
पलकों पर रख दी गई हों।
चिड़ियों ने गाया,
पर गीत हवा में ठहर गया;
किसी कान तक न पहुँच सका।

समय चलता रहा
चाय के प्यालों से भाप उठी,
कबाड़ी ने गली में आवाज दी
खिड़की से बादल झाँके,
पर इन सबके बीच
किसी ने ठहरकर पूछा नहीं—
क्या सचमुच यह जीवन है
या बस
एक थकी हुई आदत?

रात उतरी
तो चाँद ने अपनी थकी लौ टाँगी,
और खामोशी ने
धीरे से पूछा—
क्या सुबहें हमेशा
ऐसी ही आती रहेंगी?