Last modified on 18 अक्टूबर 2025, at 18:06

अंतर की रणभूमि / प्रताप नारायण सिंह

Pratap Narayan Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:06, 18 अक्टूबर 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरे भीतर
एक रणभूमि है,
जहाँ आग और जल
हर पल आमने-सामने खड़े हैं।

क्रोध
लाल ध्वज उठाए,
धातु की टंकार-सा गूँजता है।

प्रेम
शांत सरिता की तरह
पाँव धोकर कहता है--
अब भी लौटकर आ सकता है
तेरा थका हुआ मन।

मैं जानता हूँ,
हिंसा किसी और के चेहरे पर
चिह्न बनाती है,
पर उसकी लपटें
पहले मुझे ही झुलसाती हैं।

कभी-कभी सोचता हूँ--
क्या सच में हम मासूम हैं?
या भीतर कहीं
वही अँधेरा पलता है
जो दुनिया की दीवारों पर
घृणा लिखता है।

शब्द भी कभी
संवाद नहीं,
गोले बन जाते हैं
धमाके से छूटते हैं,
और घायल कर देते हैं।

फिर भी,
जब रात उतरती है
और चाँदनी मेरी नसों में
ठंडी धार जैसी बहती है,
मैं हथियार रख देता हूँ
अपने ही भीतर
अपने शत्रु के सामने।

कवि होना
निर्दोष होना नहीं है।
कवि केवल इतना जानता है
कि हर हिंसा के बाद
थोड़ी-सी राख बचती है,
और उस राख में
अब भी कोई नन्हीं चिनगारी
प्रेम की हो सकती है।