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ठहराव/ प्रताप नारायण सिंह

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इस टूटते हुए समय में
जहाँ हर चीज रेत की तरह
उँगलियों से फिसल जाती है
मैं कुछ पल का ठहराव चाहता हूँ।

न तो कस कर पकड़ना,
न लापरवाही से जाने देना,
बस इतना कि जब हवा चले,
तो तुम्हारी परछाई काँपे नहीं।

मैं कोई रक्षक नहीं,
न किसी पिंजरे का मालिक हूँ ।
मैं तो बस वह दीवार हूँ
जिस पर तुम सिर टिकाकर
थोड़ी देर के लिए
अपना भार भूल सको।

तुम्हारे भीतर की खामोशी
मेरे अंदर की थरथराहट में
धीरे-धीरे घुल जाती है।
दर्द को आराम की तरह थाम लेना,
और खो जाने के डर को भाप बना देना
प्रेम शायद यही है।

अगर तुम जाना चाहो
तो कोई रोक नहीं होगी,
केवल मेरे हाथों की ऊष्मा
थोड़ी देर तक
तुम्हारे कंधों पर ठहरी रहेगी।