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गहराई की ओर / प्रताप नारायण सिंह

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जीवन का एक बड़ा भाग बीत गया,
पर लगता है
यात्रा अभी बहुत अधूरी है।
मन का एक कोना अब भी अनावृत्त है,
जहाँ कोई नक्षत्र प्रतीक्षा में है।

बहुत कुछ देखा -
गाँवों को, कस्बों को, शहरों को,
लोगों को, समय के रंगों को,
पर हर अनुभव के पार
कुछ अछूता रह गया।
हर प्राप्ति में एक रिक्त स्वर,
हर ठहराव में एक आह्वान।

अभी थकान नहीं,
बस एक जिज्ञासा है -
क्या यह अंत है?
या भीतर ही
कोई नई दिशा खुल रही है?

कभी सोचता हूँ
अब तक जो मैंने पाया,
क्या वही मेरी परिणति थी?
या जो अपूर्ण रह गया है,
वह मेरा सच है?

आत्मा अब भी तनकर खड़ी है,
कहती है -
चलो, थोड़ा और आगे चलें,
वहाँ शायद कोई उत्तर होगा,
शब्दों में नहीं, अनुभव में।

मुझे पता है
मृत्यु पूर्ण विराम है।
पर उससे पहले,
हर साँस एक अवसर है
कुछ खोजने का,
कुछ पहचानने का।

मैंने अपनी आँखों में
अब भी एक चमक सँजो रखी है।
क्योंकि मैं मानता हूँ,
जीवन का अर्थ रुकना नहीं,
बस चलते रहना है
भीतर की ओर, गहराई में।