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मन के दरवाजे/ प्रताप नारायण सिंह

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तुम्हारे मन के दरवाजे पर
टँगी है एक स्याह चुप्पी;
कितनी बार सूरज आया होगा
और लौट गया होगा बिना दस्तक दिए |

उधार दे दो, थोड़ा-सा विश्वास,
मैं देखना चाहता हूँ
अँधेरे के भीतर कितना उजाला ठहरा है,
और कितने सपनों की धूल
अब भी साँस ले रही है।

कभी हम एक ही पगडंडी से गुजरे थे,
फिर एक जगह मुड़ गए
विपरीत दिशाओं में|
हमारे बीच रह गयी बस हवा
और कुछ अधूरे शब्द ।

कभी-कभी लगता है-
यदि हम उसी जगह वापस लौट आएँ
अपने-अपने विराट "मैं" को छोड़कर
तो शायद हमारी आँखें
एक दूसरे को देखते हुए
फिर से मुस्करा सकें।

तुम्हारी आँखों में
एक ठंडा सन्नाटा है;
मेरे पास अब भी एक सपना है,
जिसे मैंने
किसी बच्चे की हँसी में रख दिया था।
चलो, उसे फिर से ढूँढ़ें
तुम्हारे मन के दरवाजे के पार।