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स्मृति का मरुस्थल/ प्रताप नारायण सिंह

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मेरी स्मृतियों की बेलें
जब भी मुरझाने लगती हैं
मैं उन्हें
अपनी पीड़ा से सींच देता हूँ|
तुम्हारी चंचल हँसी
लहरों पर पड़ती
किरणों सी झिलमिला उठती है| |

तुम्हारे चले जाने के बाद
मेरे भीतर एक मरुस्थल उग आया है।
जहाँ रेत का हर कण
तुम्हारे कहे वाक्य का टुकड़ा है,
हर मरीचिका
तुम्हारे पदचाप की अनुगूँज है|

तुमने बालकनी में जो पौधे लगाए थे
उनका हर पत्ता, एक पत्र है--
कुछ हरे, कुछ पीले,
कुछ जले, कुछ अधजले।
मैं उन सबको पढ़ना चाहता हूँ
पर वे छूते ही राख में बदल जाते हैं।

उस राख को भस्म की तरह
अपने कंठ
अपने चेहरे
और अपने होठों पर मलकर
प्रायः मैं चुप्पी का उत्सव मनाता हूँ|

रात गहराती है
मुँड़ेर पर तीन टिटहरियाँ एक साथ गाती हैं--
एक स्मृति के लिये,
एक पीड़ा के लिये,
और एक उस रिक्ति के लिये
जिसे भरना अब संभव नहीं।
और मैं…
उस गायन में स्वयं को
धीरे–धीरे खो देता हूँ।