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अंत्येष्टि के पार/ प्रताप नारायण सिंह

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अग्नि ने जब अंतिम साँस ली,
तो राख के भीतर,
एक बीज रह गया।
उस बीज में धड़कन थी
धीमी, पर अडिग।

लोग लौट गए,
मंत्र शांत हुए,
धुआँ ऊपर उठा
हवा में कुछ शब्द रह गए --
"यही अंत नहीं"|

धरती ने उस बीज को थाम लिया,
जैसे माँ बच्चे को गोद में लेती है।
बारिश बनकर स्मृति आई,
हर बूँद ने कहा--
जिसे तुमने खोया,
वह अब तुम्हारे भीतर बोया गया है।

समय बीता
मिट्टी के नीचे कुछ हलचल हुई।
नया अंकुर निकला
किसी के आँसू से,
किसी की प्रार्थना से।
शायद उसी की साँस थी,
जो अब पत्तों में बह रही थी।

मैं समझता हूँ
कि अंत्येष्टि कोई अंत नहीं,
वह तो वापसी है
उस नाद में,
जिसमें सृष्टि का प्रथम स्वर गूँजा था।

मृत्यु कोई बुझा हुआ दीया नहीं,
वह तो हवा की
दिशा बदलने जैसी है।
जहाँ जीवन की लपट
एक और रूप लेती है--
अग्नि से आत्मा बनती है,
धूल से देह,
राख से रूप।

मृत्यु --
एक विशाल चक्र,
जहाँ हर अंत,
किसी और की सुबह है।