भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उस परिन्दे ने लुटाया था ख़ज़ाना मुझको / ज्ञान प्रकाश विवेक
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:08, 1 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक |संग्रह=गुफ़्तगू अवाम से है /...)
उस परिन्दे ने लुटाया था ख़ज़ाना मुझको
दे गया जाते हुए अपना ठिकाना मुझको
मैं तो मामूली -सा इन्सान हूँ इस बस्ती का
जो भी उठता है, बनाता है निशाना मुझको
ज़िन्दगी ! तू मुझे मरने नहीं देगी लेकिन
मार डालेगा ये कमबख़्त ज़माना मुझको
इल्तिजा है मेरी महफ़िल के सदर से इतनी-
कुर्सियाँ कम हों तो आदर से उठाना मुझको
ज़िन्दा रखने की कोई चाल थी उसकी यारो
वो जो देता रहा दो वक़्त का खाना मुझको
आसमाँ देखना चाहूँ तो मेरा सर न उठे
मेरे ख़ालिक, कभी इतना न झुकाना मुझको.