भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐसा जीना तो है सजा कोई / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:26, 11 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जहीर कुरैशी |संग्रह=भीड़ में सबसे अलग / जहीर कुर...)
ऐसे जीना तो सज़ा है कोई
जैसे जीता है हाशिया कोई
नाक की सीध में चले रहिए
मंज़िलों का नहीं पता कोई
यह सियासत भी खेल जैसी है
कोई राजा बना, प्रजा कोई
पतझरों का निकल गया मैसम
ठूँठ होने लगा हरा कोई
देख लेना निकल ही आएगा
इससे आगे भी रास्ता कोई
पद-प्रतिष्ठा शराब जैसी है
हमपे छाने लगा नशा कोई
सारी दुनिया से मिल लिए लेकिन
एक ख़ुद से न मिल सका कोई.