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अंधेरा : जड़ों का घर / पीयूष दईया
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पीठ कोरे पिता, देखो। मैं, अब मूकमूँछ हूँ।
छल-चिह्नों से छूटते हुए
इस जन्म में दीमक लग गयी है, अहैतुक में फफूंद। काठ के सिफ़र ढोते मेरे सारे शब्द समाप्ति की मालगाड़ी जैसे हैं। हृदय में फ़ालिजग्रस्त, कलपते खोपड़ी में। अंधेरा जो जड़ों का घर है। क्या उन्हें कभी अपनी केंचुल बदलते देखा जा सकता है? कौन जाने।
मेरा तो कोई पूर्वज नहीं, मैं निर्वंश हूँ। अकेला, एक लाश जैसा। तीन में न तेरह में सुतली की गिरह में। आसमान का सफ़ेद कोढ़ जो रात में हकलाता-सा चमकता है। टोक की तरह।
टिमदिप टिमदिप। अदेय दाने। आँसू का बाहुल्य।
चूते-चूते छिटक गया हो जैसे।
अन्यत्र को आँख देते जब चुग लिये दाने ऐबदार हो।