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उससे मैं मिला तो वह गुस्से में
काग़ज़ के टुकड़े फाड़-फाड़ कर
डस्टबिन में फेंके जा रही थी
मैंने पूछा- यह क्या ?
वह ऐसे बोली जैसे सिसक रही हो-
‘ख़त थे कुछ रूहों जैसे
यूँ ही पते ग़लत लिख बैठी थी’
इस गहरी चुप के दरम्यान
मैंने देखा कि नदियाँ आँखों में कैसे सूख जाती हैं !
फिर मैंने उसे एक ख़त लिखा-
‘ज़रूरी नहीं कि हर छाँव तुम्हारे लिए महफ़ूज़ ही हो
और किसी वक़्त गमलों में लगाते तो फूल हैं
पर उग आता है कैक्टस !’
उसने जवाब भेजा-
‘तूने ख़त तो ठीक पते पर भेजा है
पर इबारत तेरी रूहों से बहुत कच्ची है, माफ़ करना।’
फिर जब हम मिले तो उसने कहा-
‘बात तो कर कोई,
चुप तो रेता होती है निरी !’
और मैंने कहा-
‘मेरी बात के लिए
तेरे पास कोई डस्टबिन नहीं होगा।’
मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव