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ख़ुश्क सागर की रवानगी के लिए ललक / विशाल

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तू पहाड़ बन जा
स्थिर... अडोल... ख़ामोश
पहाड़
कि जिसे पार करते-करते
मेरी उम्र बीत जाए

अगर हमसफ़र नहीं तो
पहाड़ ही बन जा
इस तरह ही सही
तू मेरे सफ़र में शामिल तो हो...

किसी चरवाहे की बंसरी की हूक बनकर
मेरी रूह में घुल जा
घुल जा कि मेरी रूह
युगों-युगों से जमी पड़ी है

मैं रिसना चाहता हूँ
पिघलना चाहता हूँ
पहाड़ पर जमी बर्फ़ की तरह
चश्मे का नीर बनकर

तू मेरी कविता का बिंब बन जा
मैं तुझे सजाना चाहता हूँ
देख, मेरे अन्दर के सारे पुल टूट गए हैं
और मुझे रूह तक पहुँचने के लिए सहारा दे दे
तू मेरी छाती की पीर बन जा
ताकि मैं तुझे महसूस कर सकूँ

तू क्यों नहीं बन जाती
मेरी आँख का आँसू
मैं अपनी डायरी से परे
और भी बहुत कुछ हूँ

हर बार प्रतीक्षा क्यों बनती हो
तू दस्तक बनकर आ
और देख
सभ्यता के अंधेरे में
मैं कितना खो गया हूँ

मुझे अपने आप से
बहुत-सी बातें करनी हैं
अपने बारे में... तेरे बारे में...
ख़ुद से मिले एक मुद्दत हो गई है
बिखर गया हूँ
तलाशना है, संभालना है अपने आप को

मेरे इस सब-कुछ के लिए
तेरा मेरे सब-कुछ में
शामिल होना बहुत ज़रूरी है।

मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव