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मेरा दुख और मेरा संकट / राजकुमार कुंभज

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पसन्द करने का अधिकार होता अगर
तो पसन्द करते हम सिर्फ़ फूलों का खिलखिलाना
मरने का अधिकार होता अगर
तो मरते मुहब्बत के लिए दुश्मन की बाहों में
जीने का सुख होता, जीने के अधिकार की तरह
तो सचमुच जीते बांधकर सिर पर कफ़न
मेरी दिक़्क़त यही है कि जहाँ मैं रहता हूँ
वहाँ कफ़न तक नकली मिलते हैं
जो कफ़न मांगते हैं उन्हें मिलती है साड़ी
और जो चाहते हैं साड़ी, पाते हैं कफ़न
पसन्द करने का अधिकार ऎसे ही मर जाता है
डाकू को देखिए कि तिलक लगाकर घर आता हि
फिर किसी दिन संसद में पहुँचकर
हमारा भाग्य-विधाता बन जाता है
पसन्द करने का अधिकार सही नहीं है
और ये बात किसी कवि ने कही नहीं है
सोचो, सोचो, और ज़रा जल्दी सोचो, सत्ता स्वर्ग तक पहुँच जाने कि
स्वर्ण-सीढ़ी बना रही है
और ये बात किसी कवि ने कही नहीं है
अब का कवि तो ग़ुम है अपने विन्यास में
तमाम क्रान्तिकारी चले गए हैं संन्यास में
मुझे फ़ुरसत नहीं है
मुझे बच्चों की फ़ीस भरने जाना है स्कूल
मुझे राशन की लाईन में भी लगना है
चुनाव ऎन सामने है
और मेरे पास मेरा पहचान-पत्र नहीं है
मुझे इन दिनों, न मिट्टी का तेल मिल रहा है, न पैट्रोल
मेरा दुख और मेरा संकट
समझ सकता है कोई तो समझ सकता है सिर्फ़ वही
जिसके ऎन सामने चुनाव है
और जिसके पास न पैट्रोल है, न मिट्टी का तेल
और न ही कोई पहचान-पत्र।