Last modified on 28 दिसम्बर 2008, at 17:52

इक्कीस वर्ष होते होते / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:52, 28 दिसम्बर 2008 का अवतरण

हमें अपने घर से टूट जाना चाहिए
टहनी पर खिले गुलाब की तरह इच्छित होकर
किसी पके फल की तरह स्वतः
या चिड़िया के बच्चों की तरह
हमें अपने घोंसलों से उड़ जाना चाहिए

जब हमारे माँ बाप यह देखने लगे कि
हमारे बाजुओं की पेशियाँ फूल आईं हैं
और हमारी बहनों के उभार खाते दूध
तो हमारी बहनों को पड़ोसी से प्यार करना चाहिए
या चले जाना चाहिए दोपहरी भर किसी आफिस में

हमारे थके- मांदे बुढ़ाते बाप जिनकी नसें धनुष की प्रत्यंचा सी टूट गई हैं
‌और मस्तक पर की सफेद बर्फ उग आई हो
न सम्हाल सकें अपना वासनातुर मन और पुराने विचारों का जाल न समेंट पाएँ
तो हमें इक्कीस वर्ष होते होते अपना घर छोड़ देना चाहिए